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कश्मीरी व्यंजन : 'हरीसा' को न भूल पाएंगे
श्रीनगर। जब सर्दियां सताने की हद तक बढ़ जाती है, तब कश्मीर के लोग अपने उन पारंपरिक भोज्य पदार्थो का इस्तेमाल करने लगते हैं जिससे मिली ऊर्जा के सहारे वे सदियों से रक्त जमा देने वाली ठंड का मुकाबला करते आए हैं। श्रीनगर के पुराने और ऊपरी इलाकों में सर्दियों के महीनों में जो पसंदीदा व्यंजन तैयार किया जाता है और बड़े चाव से खाया जाता है, वह है 'हरीसा।'
धरती के स्वर्ग कश्मीर में पुराने समय से कहा जाता रहा है कि यदि आप एक बार हरीसा को चख लें तो आप फिर इसे कभी नजरअंदाज नहीं कर पाएंगे। यूं तो कई स्थानीय लोग मांस से तैयार होने वाले व्यंजन अपने घरों में बनाने लगे हैं, फिर भी सबसे उत्तम हरीसा आज भी पारंपरिक खानसामे जिन्हें 'हरीसा गारोव' कहा जाता है, के यहां पकता है।
अत्यंत उच्च कैलोरी वाले इस व्यंजन को पकाने में घंटों लगते हैं। इस प्रक्रिया में मांस से हड्डियों को अलग करना, मांस को एकदम से बारीक बनाना और फिर उसमें साबुत सौंफ, पके हुए चावल, दालचीनी, इलायची और स्वाद के अनुसार नमक मिलाना होता है। पारंपरिक खानसामे एक बड़ी देग में धीमी आंच पर सारी रात हरीसा पकाते रहते हैं। सतर्क खानसामा एक बड़ी लकड़ी से उसे चलाते रहते हैं ताकि देग की पेंदी में मांस का रस सूख न जाए।
जहूर अहमद (39) की श्रीनगर के अली कडाल इलाके में हरीसा की दुकान है। जहूर के वादिल और दादा अपने जमाने में हरीसा बनाने के लिए शहरभर में मशहूर थे और कई शौकीनों का मानना है कि आज भी इस छोटी सी दुकान और श्रीनगर के पुराने इलाके में कुछ मुट्ठीभर दूसरी दुकानों पर मिलने वाला हरीसा का स्वाद बेजोड़ है।
जहूर ने आईएएनएस को बताया, "बेहतरीन हरीसा तैयार करने के लिए कम से कम आठ घंटे का वक्त लगता है और यह रात के समय तैयार किया जाता है।" लेकिन महंगाई की मार से कश्मीरियों का यह पसंदीदा लजीज व्यंजन अछूता नहीं है।
जहूर ने बताया कि मांस की कीमत आसमान छूने के कारण पिछले वर्ष हरीसा 450 रुपये प्रति किलो की दर पर बेचा गया था। अन्य दुकानदारों ने आईएएनएस को बताया, "मांस की कीमत में बेतहाशा वृद्धि के कारण इस वर्ष हरीसा 550 रुपये प्रति किलो बेचा जा रहा है।" लेकिन जो लोग गुणवत्ता से समझौता नहीं कर सकते, वे कीमत की परवाह भी नहीं करते।
पिछले कुछ वर्षो से संपन्न कश्मीरी परिवारों में अपनी नव विवाहित बेटी की ससुराल में बड़ी मात्रा में हरीसा भेजने का चलन शुरू हुआ है। जहूर ने कहा कि अब यह कुछ चुने हुए संपन्न घरों का रिवाज बन गया है। एक खाते-पीते परिवार का पिता अपनी बेटी को पांच से सात किलो हरीसा भेजता है। सौगात को और ज्यादा रंग देने के लिए उसे कबाब के साथ सजाया जाता है।
लोक जीवन से जुड़े इस व्यंजन की कहानी आज भी माता-पिता अपने बच्चों को सुनाते हैं। पुराने जमाने में कश्मीर में एक अफगानी शासक हुआ करता था जिसे हरीसा इतना पसंद था कि खाते समय उसे यह सुध ही नहीं रही कि हाथ रोक ले। वह मांगता रहा और खाता रहा। वह इतनी ज्यादा मात्रा में हरीसा खा गया कि उसकी मौत हो गई।