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भगवान गणेश कैसे बने ‘मोरों के देवता’
16वीं सदी में मोर्य गोसावी नामक एक व्यक्ति ने पुणे में मोरगांव बसाया था। उनके माता-पिता वामन भट्ट और पार्वती बाई कर्नाटक से महाराष्ट्र में स्थानांतरित हुए थे। वामन भट्ट ने गणपताये धर्म को अपनाया था।
हिंदू धर्म में कुल चार धर्म हैं। शिव धर्म और वैष्णव धर्म काफी प्रसिद्ध है जबकि गणपताये और शक्ति धर्म के बारे में बहुत कम लोग ही जानते हैं।
जैसे कि नाम से पता चलता है कि शिव धर्म के लोग भगवान शिव, वैष्णव धर्म में भगवान विष्णु, शक्ति में मां दुर्गा और गणपताये धर्म में गणेश जी का पूजन किया जाता है। महाराष्ट्र, गोवा और कर्नाटक में गणतपताये धर्म के लोग बहुतायत में रहते हैं।
यहां मान्यता है कि अपनी चमत्कारिक शक्तियों से गणेश जी ने त्रिपुरासुर का वध किया था। इस युद्ध से पूर्व गणेश जी ने अपने पिता भगवान शिव की उपासना की थी।
लंबे
समय
से
गणपताये
धर्म
के
लोग
मोरगांव
में
रह
रहे
हैं।
वामन
भट्ट
और
पार्वती
बाई
का
मोरगांव
में
स्थाानांतरित
होने
के
पीछे
एक
कारण
था।
लेकिन
मोरगांव
का
स्थान
इस
नाम
से
क्योंं
प्रसिद्ध
हुआ
?
मोरगांव
का
मतलब
होता
है
–
मोरों
का
गांव।
इस
गांव
में
कई
सारे
मोर
हैं।
इस गांव में गणेश जी को भी मयूरेश्वर के नाम से पूजा जाता है। मयूरेश्वर का अर्थ है – मोरों के भगवान। ऐसी सात और जगहें हैं जहां इस रूप में गणेश जी का पूजन किया जाता है। ये स्थान हैं थेऊर, सिद्धाटेका, रंजनगांव, ओझर, लेन्याद्री, महद और पाली। इन आठ स्थानों को अष्टविनायक कहा जाता है।
गणेश पुराण के अनुसार सिंधु नामक दानव का वध करने के लिए गणेश जी ने मोर का रूप धारण किया था। मोरगांव में गणेश जी के मयूरेश्वर अवतार को भी देखा जा सकता है, यहां उन्हें मोरेश्वेरा के नाम से जाना जाता है। माना जाता है कि मोरेश्वरा की पूजा करने के बाद ही वामन और पार्वती को पुत्र की प्राप्ति हुई थी।
वामन और पार्वती ने अपने पुत्र का नाम मोर्या रखा था। बचपन से ही मोर्या, भगवान गणेश का भक्त था। वो अकसर थिऊर जाकर गणेश जी का पूजन किया करता था। गणेश जी का भक्त होने के कारण ही उसे मोरोबा गोसावी और मोर्या कहा जाता था।
मोरोबा को वेद-वेदांगा, पुराण, उपनिषद् का गहन ज्ञान था। पुणे की पवना नदी के पास चिंचावाद में उन्होंने अपना एक आश्रम भी बनाया था। इस आश्रम में समर्थ रामदासा और संत तुकाराम भी आए थे। समर्थ रामदासा ने चिंचावाद आश्रम में ही लोकप्रिय गणपति वंदना 'सुखहर्ता-दुखहर्ता वर्ता विघ्नांची’ की रचना की थी।
मोर्या के समय से ही मोरगांव गणेश मंदिर में गणेश चतुर्थी का त्योहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। अष्टविनायक यंत्र का पहला स्थान भी मोरेश्वर ही है।