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कौरवों का साथ देने वाले कर्ण को श्री कृष्ण ने दिए थे ये तीन वचन
कर्ण महाभारत के वीर और बहादुर योद्धाओं में से एक था। हालांकि उसने यह युद्ध कौरवों की ओर से लड़ा था फिर भी वह श्री कृष्ण को बहुत प्रिय था क्योंकि उसका ह्रदय पवित्र और साफ़ था। साथ ही वह अच्छे गुणों वाला मनुष्य था। वह एक सच्चा इंसान होने के साथ साथ निडर योद्धा भी था।
तीरंदाज़ी में महारथ हासिल करने वाले कर्ण ने बचपन से ही बहुत सारे कष्ट झेले थे। कर्ण दुर्योधन का सबसे अच्छा मित्र था इसलिए महाभारत में उसने युद्ध पांडवों के विरुद्ध लड़ा था। कर्ण को बहुत बड़ा दानी भी कहा जाता था। कहते हैं अगर कोई उससे कुछ माँग ले तो वह कभी इंकार नहीं करता था चाहे इसके लिए उसे अपने प्राण तक संकट में क्यों न डालने पड़ जाए।
आइए जानते हैं कर्ण के जीवन से जुड़ी कुछ रोचक बातें और साथ ही उन तीन वचनों के बारे में जो श्री कृष्ण ने कर्ण के अंतिम समय में उसे दिया था।
पिता से मिला था कवच
कर्ण की माता कुंती थी जो पांडवों की भी माता थी। कर्ण का जन्म कुंती और पांडु के विवाह के पूर्व हुआ था। सूर्य देव के आशीर्वाद से ही कुंती ने कर्ण को जन्म दिया था इसलिये कर्ण को सूर्य पुत्र कर्ण के नाम से जाना जाता है। सूर्यदेव ने अपने इस पुत्र को एक कवच प्रदान किया था जिससे उसे कोई भी पराजित नहीं कर पाता।
कर्ण आज भी एक ऐसे महान योद्धा के रूप में जाना जाता है जो अपने समस्त जीवन में प्रतिकूल परिस्थितियों से लड़ता रहा। वास्तव में उसे वह सब कुछ प्राप्त नहीं हो पाया जिसका वह असली हक़दार था।
जब सूर्यदेव ने कर्ण को दी चेतावनी
कहते हैं कर्ण प्रतिदिन सूर्यदेव को जल अर्पित करता था वह किसी के लिए भी अपना यह नियम कभी नहीं तोड़ता और उस समय उससे कोई भी कुछ भी माँग ले वह कभी इंकार नहीं करता।
कर्ण और अर्जुन दोनों ही बड़े बलवान और वीर पुरुष थे चूंकि कर्ण के पास उसके पिता का दिया हुआ कवच था इसलिए वह अर्जुन से अधिक शक्तिशाली माना जाता था। वहीं दूसरी ओर इंद्र देव इस बात से बड़े ही चिंतित और भयभीत थे कि कर्ण के पास वह कवच है इसलिए उन्होंने निर्णय लिया कि जब कर्ण सूर्यदेव को जल अर्पित कर रहा होगा तब वे दान स्वरुप वह कवच उससे मांग लेंगे।
जब सूर्यदेव को वरुण देव के इरादों की भनक लगी तो उन्होंने फ़ौरन कर्ण को चेतावनी दी और उसे जल अर्पण करने से भी मना किया। किन्तु कर्ण ने उनकी एक न सुनी, उसने सूर्यदेव से कहा कि सिर्फ दान के भय से वह अपने पिता की उपासना करना नहीं छोड़ सकता।
इंद्र देव ने ब्राह्मण का रूप धारण किया
सूर्यदेव के मना करने के बावजूद अगली सुबह कर्ण उन्हें जल अर्पित करने नदी के तट पर पहुंच गया जहां पहले से ही इंद्र देव एक ब्राह्मण का रूप धारण करके उसका इंतज़ार कर रहे थे। जैसे ही वह सूर्यदेव की पूजा समाप्त करके उठा इंद्र देव उसके पास पहुंच गए और दान में उससे उसका कवच मांग लिया। अपने स्वभाव अनुसार उसने ख़ुशी ख़ुशी वह कवच उन्हें दान में दिया। हालांकि उसकी इस बात से प्रसन्न होकर उन्होंने कर्ण को एक अस्त्र प्रदान किया जिसका प्रयोग वह अपनी रक्षा हेतु केवल एक ही बार कर सकता था।
अर्जुन के साथ युद्ध में हुई कर्ण की हार
कहा जाता है इंद्र देव को दान में अपना कवच देना ही युद्ध में अर्जुन के हाथों कर्ण की हार का सबसे बड़ा कारण था। इसके अलावा कर्ण ने इंद्र देव के द्वारा दिए हुए उस अस्त्र का प्रयोग भी अर्जुन से युद्ध के पहले ही कर लिया था। हालांकि, उसके अच्छे कर्म और सत्य के प्रति उसके समर्पण के कारण ही वह श्री कृष्ण के बेहद करीब था।
श्री कृष्ण ने दिए थे कर्ण को ये तीन वचन
कहते हैं कर्ण की हार से श्री कृष्ण बहुत दुखी हुए थे। उसके अंतिम क्षणों में वे उसके समक्ष प्रकट हुए और उससे उसकी अंतिम इच्छा पूछी। तब कर्ण ने उनसे तीन वचन मांगे जो इस प्रकार हैं।
अपने पहले वचन में कर्ण ने श्री कृष्ण से जात पात का भेदभाव खत्म करने के लिए कहा ताकि सबको एक बराबर का दर्जा दिया जाए। कर्ण इस बात से हमेशा दुखी रहता था कि उसकी माता ने उसे विवाह के पहले सूर्यदेव के आशीर्वाद से जन्म दिया था। उसके चरित्र पर कोई उंगली न उठे इसलिए उसकी माता ने उसे समाज के सामने कभी स्वीकार नहीं किया। इस वजह से कर्ण को सूत पुत्र यानी नीची जाती का माना जाने लगा।
कर्ण के साथ अकसर भेदभाव किया जाता और उसका अपमान भी होता। गुरु द्रोणाचार्य ने भी इसी कारण कर्ण को अपना शिष्य बनाने से साफ़ इंकार कर दिया था। इस वजह से कर्ण चाहता था कि जैसे उसके साथ हुआ वैसा और किसी के साथ न हो।
अपने दूसरे वचन में कर्ण ने श्री कृष्ण से कहा कि जब भी वे अपना अगला अवतार लेकर धरती पर आये तो वे उसके राज्य में ही जन्म लें।
अपने अंतिम और तीसरे वचन में कर्ण ने श्री कृष्ण से कहा कि उसका दाह संस्कार ऐसे स्थान पर किया जाए जो पवित्र हो और सभी पापों से मुक्त हो। जहां कभी कुछ गलत न हुआ हो। चूंकि महाभारत के युद्ध के बाद ऐसा कोई स्थान नहीं था इसलिए श्री कृष्ण ने निर्णय लिया कि वे अपने हाथों की हथेली पर उसका अंतिम संस्कार करेंगे।