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मातम और आंसुओं का महीना है मुहर्रम, क्या है काले कपड़े पहनने का राज़
मुहर्रम के महीने का आग़ाज़ 11 सितंबर से हो चुका है। इस साल मुहर्रम का महीना 9 अक्टूबर तक चलेगा। ये महीना इस्लाम में नए साल के आगमन का प्रतीक है। इस्लाम के अनुसार मुहर्रम साल का पहला महीना होता है। इस धर्म को मानने वाले अनुयायियों के लिए ये महीना बेहद ख़ास होता होता है। इस्लाम में चार पवित्र महीने माने गए हैं उनमें मुहर्रम भी शामिल है।
इस्लामी कैलेंडर है अलग
दरअसल ग्रेगोरियन और इस्लामी कैलेंडर की तारीखें एक नहीं होती हैं। इस्लामी कैलेंडर की तारीखें चंद्रमा पर आधारित होती हैं तो वहीं ग्रेगोरियन कैलेंडर सूर्य के निकलने और अस्त होने के अनुसार तय होती हैं।
मुहर्रम के बारे में विस्तार से जानने के लिए इसके पीछे के इतिहास के बारे में जानना बेहद ज़रूरी है। ये उस दौर से जुड़ा हुआ है जब इस्लाम में खिलाफत यानी खलीफाओं की हुकूमत थी। इस्लामी कैलेंडर में मुहर्रम पहला महीना होने की वजह से ये हिजरी संवत के नाम से भी जाना जाता है। अल्लाह के रसूल हज़रत ने इस महीने को अल्लाह का महीना भी कहा था।
क्या है मुहर्रम का इतिहास
बगदाद की राजधानी इराक में यजीद की हुकूमत थी। वो बहुत ही क्रूर और बेरहम शासक था। लोग यजीद के नाम से ही डरते थे। वो खौफ का दूसरा नाम था और इंसानियत उससे कोसों दूर थी। मोहम्मद-ए-मुस्तफा के नवासे हज़रत इमाम हुसैन ने इस स्थिति को बदलने के बारे में सोचा और यजीद के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया। क्रूर बादशाह को ये बात बिलकुल भी रास नहीं आई। उसने अपनी हुकूमत बनाए रखने के लिए हुसैन और उनके खानदान पर अत्याचार किये। इस ज़ुल्म की हद तब पार हो गयी जब उसने 10 मुहर्रम को उन्हें हमेशा के लिए मौत की नींद सुला दिया।
हज़रत हुसैन इराक के कर्बला शहर में यजीद की फौज से लड़ते हुए शहीद हुए थे। ये शहादत मुहर्रम के महीने में ही हुई थी। हुसैन का मक़सद धरती पर इंसानियत को ज़िंदा रखना था। उनके इस बलिदान के सम्मान के लिए लोगों ने इस्लामी कैलेंडर के अनुसार नया साल मनाना ही छोड़ दिया। ये युद्ध इतिहास के पन्नों में जगह बना गया और मुहर्रम का महीना ग़म और शोक के महीने के रूप में बदल गया।
शिया मुसलमान 10 दिनों तक नज़र आते हैं काले कपड़ों में
मुहर्रम त्योहार नहीं है जो खुशियों का सन्देश देती हो बल्कि ये उन बलिदानों को याद करके उसका शोक और आंसू बहाने का समय होता है। मुहर्रम माह के दस दिनों के दौरान शिया समुदाय के लोग काले कपड़े पहनते हैं। वहीं मुस्लिम समाज के सुन्नी समुदाय के लोग मुहर्रम के इन दस दिन रोज़ा रखते हैं। ये काले कपड़े कर्बला के उस जंग की खुनी हक़ीक़त को याद करने का ज़रिया है। इस दौरान लोग हुसैन और उनके परिवार की शहादत के मंज़र को महसूस करने की कोशिश करते हैं। इसके लिए लोग सड़कों पर जुलूस निकालते हैं और मातम मनाते हैं।
मुहर्रम के जुलूस में होता क्या है
इस दौरान लोग कर्बला जंग की कहानी सुनते हैं। ये लोग खुद को संगीत, शोर-शराबे से दूर रखते हैं। ये किसी भी ख़ुशी के कार्यक्रम के हिस्सा नहीं बनते हैं। जुलूस में नंगे पैर चलते हैं और कर्बला युद्ध के सिपाहियों के फ़र्ज़ को याद कर्क विलाप करते हैं। कुछ लोग उस दर्द को महसूस करने के लिए अपने आपको खून निकलने तक कोड़े मरते हैं। इस मौके पर कुछ अनुयायी उस ऐतिहासिक जंग का अभिनय करते हैं। इस दिन मुसलमान घरों-मस्जिदों में इबादत करते हैं और उस युद्ध का हिस्सा रहे जांबाज़ों का शुक्रिया अदा करते हैं।