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जब महावीर स्वामी को प्राप्त हुआ 'केवल ज्ञान'
वैशाख महीने के शुक्ल पक्ष के दसवें दिन भगवान महावीर ने 'केवल ज्ञान' प्राप्त किया था। जैन धर्म में इस दिन को बहुत ही महत्वपूर्ण माना गया है। माना जाता है कि इस दिन वह सर्वज्ञानी बन गए थे। आपको बता दें इस साल यह पवित्र दिन आज यानी 25 अप्रैल को है।
जैन धर्म में दो संप्रदाय हैं श्वेतांबर और दिगंबर। हालांकि, केवल ज्ञान की कुछ विशेषताओं के बारे में दोनों संप्रदायों के विचारों अलग हैं। दिगंबर संप्रदाय जिसे केवल ज्ञान प्राप्त हुआ है उन्हें खाने या पीने की आवश्यकता महसूस नहीं होती है, उन्हें भूख और प्यास का अनुभव नहीं होता। दूसरी तरफ, श्वेतांबर सम्प्रदाय का मानना है कि केवल ज्ञान को प्राप्त करने वाले ऐसा महसूस करते हैं।
हालांकि, वे इस बात पर सहमत हैं कि केवलज्ञान को प्राप्त करने वाला अंतिम व्यक्ति भगवान महावीर के शिष्यों में से एक था।
इस प्रतिज्ञा को कहा जाता है महाव्रत
जैन ग्रंथ विभिन्न चरणों के बारे में बात करते हैं जिनसे व्यक्ति अपने जीवनकाल में गुजर सकता है। वह एक अनजान व्यक्ति से शुरू होता है और आखिरी चरण प्राप्त कर सकता है, जो कि केवल ज्ञान का है। माना जाता है कि सबसे पहले मिथ्या द्रष्टि के नाम से जाना जाने वाला सबसे खराब चरण होता है, जो गलत कर्ता का चरण होता है। फिर, धीरे-धीरे वह दूसरे चरण की ओर बढ़ता है, माना जाता है कि यह थोड़ा कम बुरा होता है। यह सासादन सम्यक्-दृष्टि है, वह चरण जब व्यक्ति को कम से कम कुछ सच्चा विश्वास होता है। फिर मनुष्य मिश्र दृष्टि और अविरत सम्यक्-दृष्टि का पालन करें।
आम आदमी इस चौथे चरण तक पहुंच सकता है, इसे पार करना और आगे बढ़ने का काम केवल वही व्यक्ति कर सकता है जिसने जैन तपस्वी जीवन की सख्त शपथ ली है। ये प्रतिज्ञा महाव्रत के रूप में जानी जाती है।
जैन ग्रंथ - उत्तर पुराण और हरिवंम पुराण में भगवान महावीर के सर्वोच्च ज्ञान प्राप्त करने का उल्लेख मिलता है।
महावीर ने की थी कड़ी तपस्या
भगवान महावीर ने जीवन के बारह चरणों को पार कर लिया था और बहुत कठिन तपस्या के बाद इस सर्वोच्च चरण को प्राप्त किया था। वो वैशाख शुक्ल दशमी के चतुर्थ प्रहर में मगध के जृम्भक गांव में ऋतु बालुका नदी के किनारे गौदुह आसन में ध्यानावस्था में बारह साल, पांच महीने और पंद्रह दिन रहे थे तब जाकर उन्होंने केवल ज्ञान व अनुत्तर केवल दर्शन प्राप्त किया।
उन्होंने साढ़े बारह सालों तक कठोर तप, बलिदान और ध्यान किया। इस दौरान वह जंगलों और अज्ञात स्थानों में रहे और खुद को समाज से अलग कर दिया। इतना ही नहीं साधना के दौरान आर्य व अनार्य भूमि पर विचरण करते हुए प्रभु को देव-दानव, मनुष्य और पशु जगत की तरफ से कई प्रकार के भीषण कष्ट पहुंचाए गए लेकिन महावीर स्वामी क्षमा, तितिक्षा, धैर्य व समभाव से उन सभी दुखों व जानलेवा उपसर्गों को सहन करते रहे और अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहे।
केवल ज्ञान की प्राप्ति के बाद भगवान महावीर का पहला उपदेश अगामास नाम की पुस्तक में दर्ज किया गया है। फिर, इस चरण के बाद भगवान महावीर की यात्रा के बारे में दोनों संप्रदायों की राय में एक अंतर है। श्वेताम्बरों का मानना है कि केवल ज्ञान की प्राप्ति के बाद वह अगले तीस सालों तक शिष्यों और अनुयायियों को यात्रा और शिक्षित करने के बारे में सोचते थे, दूसरी ओर दिगंबर कहते हैं कि वह सिर्फ अपने समवसरण में बैठे थे और अपने अनुयायियों को उपदेश दिया था।