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जानिए, क्या महत्व है जैन अक्षय तृतीया का?
जैन समुदाय भी अक्षय तृतीय के पर्व को बहुत ही अच्छे से मनाते है, इसके पीछे एक पौरोणिक कथा भी हैं, आइए जानते है जैन अक्षय तृतीया से जुड़े फैक्ट के बारे में।
अक्षय तृतीया वैशाख शुक्ल तृतीया को कहा जाता हैं। वैदिक कलैण्डर के चार सर्वाधिक शुभ दिनों में से यह एक मानी गई है। अक्षय तृतीया को भगवान विष्णु ने परशुराम अवतार लिया था। अत: इस दिन व्रत करने और उत्सव मनाने की प्रथा है।
हिन्दू धर्म में सोने को पूजनीय माना जाता है यही कारण है कि अक्षय तृतीया के दिन सोना खरीदा जाता हैं, जिससे उनके घर में सुख और समृद्धि बनी रहे। इस दिन कई लोग नए काम को शुरू करते हैं। जिससे उनके व्यापार में उन्हें तरक्की हो। कई लोग अक्षय तृतीया के दिन शादियां और ग्रहप्रवेश भी करते हैं। कम शब्दों में कहें तो हिंदुओं में अक्षय तृतीया के दिन कोई भी शुभ कार्य अगर किया जाए गया तो वह कामयाब और सफल होता।
क्या आपको पता है जैन समुदाय के लोग भी अक्षय तृतीया को मनाते हैं लेकिन कुछ अलग ढंग से। हिन्दू धर्म में माना जाता है कि किसी भी व्रत का उद्यापन या व्रत का समापन अक्षय तृतीया के दिन नहीं किया जाता है। जो लोग इस व्रत को रखते हैं वे अपने व्रत का उद्यापन तिथि को आगे या पीछे करते हैं , लेकिन अक्षय तृतीया के दिन उपवास नहीं तोड़ते।
इसके
विपरीत
कहा
जाता
है
कि
इस
दिन
जैन
धर्म
के
प्रथम
तीर्थंकर
श्री
आदिनाथ
भगवान
ने
एक
वर्ष
की
तपस्या
पूर्ण
करने
के
पश्चात
इक्षु
(गन्ना)
रस
से
पारायण
किया
था।
जैन
धर्म
के
प्रथम
तीर्थंकर
श्री
आदिनाथ
भगवान
ने
सत्य
व
अहिंसा
का
प्रचार
करने
और
अपने
कर्म
बंधनों
को
तोड़ने
के
लिए
संसार
के
भौतिक
व
पारिवारिक
सुखों
को
त्यागते
हुए
जैन
वैराग्य
अंगीकार
किया
था।
जैन अक्षय तृतीया से जुडी कहानी
जिसके अनुसार एक प्राचीन राजा थे ऋषभदेव जो अयोध्या की भूमि पर शासन किया करते थे। कुछ समय के बाद ऋषभदेव के अपनी सारी संपत्ति और सांसारिक सुखों को त्याग कर, धर्म के पथ पर चले गए। आगे चल कर यही राजा जैन समुदाय के पहले तीर्थंकर बने। जैन समुदाय में अक्षय तृतीया के बारे नीचे और पढ़े।
राजा ऋषभदेव की कहानी
ऋषभदेव ही पहले दिगंबर थे जिन्हों ने जैन धर्म की स्थापना की थी। दिगंबर को अनाज का एक भी दाना रखने की अनुमति नहीं थी। उन्हें सिर्फ लोगों के दिए गए अनाज पर ही अपनी जीविका चलानी थी। यह अपने लोगों को सीखने के लिए ऋषभदेव ने भिक्षा मांगना शुरू की, इसके बदले लोगों ने उन्हें सोने, कीमती जवाहरात, महंगे कपड़े और बेटियां तक दान में देने को तैयार हो गये। लेकिन ऋषभदेव ने यह सब लेने से इंकार कर दिया। इसी तरह लम्बे समय तक भोजन ना मिलने पर ऋषभदेव ने भोजन को त्याग दिया।
इक्ष्वाकु
संस्कृत में इक्ष्वाकु गन्ने को इक्षु कहा जाता है और गन्ने को इक्षु आहार। ऋषभदेव ने 'इक्षु आहार से अपना व्रत तोड़ा था इसीलिए इनके वंश के नाम को इक्ष्वाकु वंश के नाम से जाना जाता है।
आहार चर्या की स्थापना
अक्षय तृतीया के दिन ही ऋषभदेव ने आहार चर्या की स्थापना की थी। आहार चर्या के दिन जैन भिक्षुओं के लिए भोजन तैयार किया जाता है, और उन्हें खिलाया जाता है।
वर्षी तप
पूरे साल में कई बार उपवास करना इसे वर्षी तप कहते हैं। जैन समुदाय के लोग इस उपवास का समापन अक्षय तृतीया के दिन गन्ने का रास पी कर करते हैं। यह उसी तरह किया जाता है जैसे उनके पहले तीर्थंकर ऋषभदेव ने अपना उपवास गन्ने का रस पी कर तोड़ा था।
हस्तिनापुर का मेला
हर साल हस्तिनापुर में मेले का आयोजन किया जाता है, जहां हजारों तीर्थंकर अपना उपवास तोड़ने आते हैं। इस उत्सव को "पारण" के नाम से भी जाना जाता है।
गन्ने का दान
अक्षय तृतीया के दिन सारे तीर्थंकर को गन्ने का दान दिया जाता है। इस अनुष्ठान में गन्ने का रस तीर्थंकर को पिलाया जाता है।