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जानिये ऐसा क्या हुआ की कृष्ण ने कर्ण की प्रशंसा की
एक बार कृष्ण और अर्जुन एक गांव की तरफ जा रहे थे तभी अर्जुन ने कृष्ण से कहा कि क्यों कर्ण को दानवीर कहा जाता है और उन्हें नहीं।
यह सुन कर कृष्ण ने दो पर्वत को सोने में बदल दिया, और अर्जुन से कहा कि वह इसका सारा सोना गाँव वालो के बीच में बाट दे। तब अर्जुन गाँव गए और सारे लोगों से कहा कि वे पर्वत के पास इक्कट्ठा हो जाएं क्योंकि वे सोना बाटने जा रहें हैं।
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यह
सुन
कर
गाँव
वालो
ने
अर्जुन
की
जय
जय
कार
करनी
शुरू
कर
दी
और
अर्जुन
छाती
चौड़ी
कर
पर्वत
की
तरफ
चल
दिए।
दो
दिन
और
दो
रातों
तक
अर्जुन
ने
सोने
के
पर्वत
खोदा
और
खोद
कर
सोना
गाँव
वालो
में
बाटा।
इतने
से
पर्वत
पर
कोई
असर
नहीं
हुआ।
लेकिन बहुत सारे गाँव वाले वापस आके कतार में खड़े होकर इंतज़ार करने लगे। अर्जुन अब थक चुके थे लेकिन अपने अहंकार को नहीं छोड़ रहे थे।
उन्होंने कृष्ण से कहा कि अब वो थोड़ा आराम करना चाहते हैं इसके बिना वो खुदाई नहीं कर पाएंगे। तब कृष्ण ने कर्ण को बुलाया और कहा कि सोने के पर्वत को इन गाँव वालों के बीच में बाट दें।
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कर्ण ने सारे गाँव वालों को बुलाया और कहा कि ये दोनों सोने के पर्वत उनके हैं और उनसे आ कर सोना ले लो। अर्जुन भौंचक्के हो गये और सोचने लगे कि यह ख्याल उनके दिमाग में क्यों नहीं आया।
तभी कृष्ण मुस्कुराये और अर्जुन से बोले कि तम्हे सोने से मोह हो गया था और तुम गाँव वालो को उतना ही सोना दे रहे थे जितना तुम्हें लगता था कि उन्हें जरुरत है। इसलिए सोने को दान में कितना देना है इसका आकार तुम तय कर रहे थे।
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लेकिन कर्ण ने यह सब नहीं सोचा और दान देने के बाद कर्ण वह से दूर हट गया। वह नहीं चाहता कि कोई उसकी प्रशंसा करे और ना उसे इस बात से कोई फर्क पड़ता है कि कोई उसके पीछे उसके बारे में क्या बोलता है।
यह एक निशानी है उस आदमी की जो आत्मज्ञान हासिल कर चुका है। दान देने के बदले में धन्यवाद या बधाई की उम्मीद करना उपहार नहीं सौदा कहलाता है। इसलिए दान करो बिना किसी उम्मीद के ।