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ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग : यह है चौथा प्रमुख ज्योतिर्लिंग
ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग ज्योतिर्लिंग को शिव महापुराण में ‘परमेश्वर लिंग’ कहा गया है। यह ज्योतिर्लिंग मध्यप्रदेश में पवित्र नर्मदा नदी के तट पर स्थित है।
ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग मध्य प्रदेश के प्रसिद्ध शहर इंदौर के समीप 77 किमी की दूरी पर स्थित है। जिस स्थान पर यह ज्योतिर्लिंग स्थित है, उस स्थान पर नर्मदा नदी बहती है और पहाड़ी के चारों ओर नदी बहने से यहां ऊं का आकार बनता है। ऊं शब्द की उत्पति ब्रह्मा के मुख से हुई है। इ
सलिए किसी भी धार्मिक शास्त्र या वेदों का पाठ ऊं के साथ ही किया जाता है। यह ज्योतिर्लिंग औंकार अर्थात ऊं का आकार लिए हुए है, इस कारण इसे ओंकारेश्वर नाम से जाना जाता है। यह शिवजी का चौथा प्रमुख ज्योतिर्लिंग कहलाता है। ओंकारेश्वर में ज्योतिर्लिंग के दो रुपों ओंकारेश्वर और ममलेश्वर की पूजा की जाती है।
ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग ज्योतिर्लिंग को शिव महापुराण में 'परमेश्वर लिंग' कहा गया है।यह ज्योतिर्लिंग मध्यप्रदेश में पवित्र नर्मदा नदी के तट पर स्थित है। इस स्थान पर नर्मदा के दो धाराओं में विभक्त हो जाने से बीच में एक टापू-सा बन गया है। इस टापू को मान्धाता-पर्वत या शिवपुरी कहते हैं।
ये है किवदंतियां
इस मंदिर में शिव भक्त कुबेर ने तपस्या की थी तथा शिवलिंग की स्थापना की थी. जिसे शिव ने देवताओ का धनपति बनाया था। कुबेर के स्नान के लिए शिवजी ने अपनी जटा के बाल से कावेरी नदी उत्पन्न की थी।
यह नदी कुबेर मंदिर के बाजू से बहकर नर्मदाजी में मिलती है, जिसे छोटी परिक्रमा में जाने वाले भक्तो ने प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में देखा है, यही कावेरी ओमकार पर्वत का चक्कर लगते हुए संगम पर वापस नर्मदाजी से मिलती हैं, इसे ही नर्मदा कावेरी का संगम कहते है।
धनतेरस पूजन इस मंदिर पर प्रतिवर्ष दिवाली की बारस की रात को ज्वार चढाने का विशेष महत्त्व है इस रात्रि को जागरण होता है तथा धनतेरस की सुबह अभिषेक पूजन होता हैं इसके पश्चात् कुबेर महालक्ष्मी का महायज्ञ, हवन,(जिसमे कई जोड़े बैठते हैं, धनतेरस की सुबह कुबेर महालक्ष्मी महायज्ञ नर्मदाजी का तट और ओम्कारेश्वर जैसे स्थान पर होना विशेष फलदायी होता हैं )
इस अवसर पर हजारों भक्त दूर दूर से आते है व् कुबेर का भंडार प्राप्त कर प्रचुर धन के साथ सुख शांति पाते हैं।
कथा 2-
एक बार नारायण भक्त ऋषि नारद मुनि घूमते हुए गिरिराज विंध्य पर्वत पर पहुँच गये। विंध्य पर्वत ने बड़े आदर-सम्मान के साथ उनका स्वागत और पूजा की।
वह कहने लगे कि मैं सर्वगुण सम्पन्न हूं, मेरे पास हर प्रकार की सम्पदा है, किसी प्रकार की कोई कमी नहीं है। इस प्रकार के अहंकारी भाव को मन में लेकर विन्ध्याचल नारद जी के समक्ष खड़े हो गये। अहंकारनाशक श्री नारद जी विन्ध्याचल के अहंकार का नाश की सोची।
नारद जी ने विन्ध्याचल को बताया कि तुम्हारे पास सब कुछ है, किन्तु मेरू पर्वत तुमसे बहुत ऊँचा है। उस पर्वत के शिखर देवताओं के लोकों तक पहुंचे हुए हैं। मुझे लगता है कि तुम्हारे शिखर वहां तक कभी नहीं पहुंच पाएंगे। इस प्रकार कहकर नारद जी वहां से चले गए। उनकी बात सुनकर विन्ध्याचल को बहुत पछतावा और दुख हुआ।
उसने उसी समय निर्णय किया कि अब वह भगवान शिव की आराधना और तपस्या करेगा। इस प्रकार विचार करने के बाद वह मिट्टी का शिवलिंग बनाकर भगवान शिव की कठोर तपस्या करने लगा। कई माह की कठोर तपस्या के बाद भगवान शिव उसकी तपस्या से प्रसन्न हो गये। उन्होंने विन्ध्याचल को साक्षात दर्शन दिए और आशीर्वाद दिया। भगवान शिव ने प्रसन्नतापूर्वक विन्ध्याचल से कोई वर मांगने के लिए कहा।
विन्ध्य पर्वत ने कहा कि भगवन यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो हमारे कार्य की सिद्धि करने वाली अभीष्ट बुद्धि हमें प्रदान करें। विन्ध्यपर्वत की याचना को पूरा करते हुए भगवान शिव ने विन्ध्य को वर दे दिया। उसी समय देवतागण तथा कुछ ऋषिगण भी वहाँ आ गये। देवताओं और ऋषियों के अनुरोध पर वहाँ स्थित ज्योतिर्लिंग दो स्वरूपों में विभक्त हो गया। एक प्रणव लिंग ओंकारेश्वर और दूसरा पार्थिव लिंग ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग के नाम से प्रसिद्ध हुए।
एक अन्य कथा -
भगवान शिव के अन्नय भक्त सूर्यवंशी राजा मान्धाता ने इस स्थान पर कठोर तपस्या करके भगवान शंकर को प्रसन्न किया था। राजा मान्धाता ने भगवान शिव से प्रार्थना की कि वह जन कल्याण के लिए उस स्थान पर स्थाई रूप से निवास करें।
भगवान शिव ने राजा की प्रार्थना को स्हर्ष स्वीकार कर लिया और वहां पर शिवलिंग के रूप में स्थापित हुए। उस शिव भक्त राजा मान्धाता के नाम पर ही इस पर्वत का नाम मान्धाता पर्वत पड़ा।
सदा रहता है जलमग्न
अनादिकाल से मां नर्मदा ज्योतिर्लिंग ओंकारेश्वर का जलाभिषेक करती आ रही है। ओंकारेश्वर लिंग किसी मनुष्य के द्वारा गढ़ा, तराशा या बनाया हुआ नहीं है, बल्कि यह प्राकृतिक शिवलिंग है।
इसके चारों ओर हमेशा जल भरा रहता है। प्राय: किसी मन्दिर में लिंग की स्थापना गर्भ गृह के मध्य में की जाती है और उसके ठीक ऊपर शिखर होता है, किन्तु यह ओंकारेश्वर लिंग मन्दिर के गुम्बद के नीचे नहीं है। इसकी एक विशेषता यह भी है कि मन्दिर के ऊपरी शिखर पर भगवान महाकालेश्वर की मूर्ति लगी है। कुछ लोगों की मान्यता है कि यह पर्वत ही ओंकाररूप है।
सावन माह में ज्यादा महत्व
शिवपुराण में इस ज्योतिर्लिंग की महिमा का विस्तार से वर्णन किया गया है। श्री ओंकारेश्वर और श्री ममलेश्वर के दर्शन का पुण्य बताते हुए नर्मदा-स्नान के पावन फल का भी वर्णन किया गया है।
प्रत्येक मनुष्य को इस क्षेत्र की यात्रा अवश्य ही करनी चाहिए। लौकिक-पारलौकिक दोनों प्रकार के उत्तम फलों की प्राप्ति भगवान् ओंकारेश्वर की कृपा से सहज ही हो जाती है।
अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष के सभी साधन उसके लिए सहज ही सुलभ हो जाते हैं। अंततः उसे लोकेश्वर महादेव भगवान् शिव के परमधाम की प्राप्ति भी हो जाती है।