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कैसे शुरू हुई थी कांवड़ यात्रा की परंपरा
सावन का पवित्र महीना आने ही वाला है और महादेव के भक्त हर वर्ष की तरह इस साल भी लाखों की संख्या में कांवड़ यात्रा करेंगे। जैसा की हम सब जानते हैं सावन का महीना शिव जी को समर्पित है और इस माह में कांवड़ में जल भर कर भोलेनाथ को अर्पित करना बेहद शुभ मन जाता है।
दूर दूर से लोग अपने कांवड़ में गंगाजल लेकर पद यात्रा करते हैं और शिव जी के मंदिर में जाकर उनका अभिषेक करते हैं। जो भक्त कांवड़ उठाते हैं उन्हें कांवड़िया कहा जाता है। केसरी रंग का वस्त्र धारण कर ये भक्त इस कठिन यात्रा पर निकलते हैं। एक बांस पर दोनों तरफ मटकी बाधी जाती है और इसे कांवड़ कहते हैं। सभी लोग गौमुख, सुल्तानगंज, इलाहाबाद, हरिद्वार और गंगोत्री जैसे तीर्थस्थलों पर जाकर गंगाजल भरकर लाते हैं।
इस पवित्र कांवड़ को ज़मीन पर रखने की मनाही होती है। यहां तक की खाते समय भी इसे पेड़ या अन्य किसी स्थान पर टांग दिया जाता है।
खड़ी कांवड़ को कंधे पर ही रखा जाता है। इसे न तो कहीं रख सकते हैं न ही टांग सकते हैं। यदि आपको विश्राम या भोजन करना है तो आप इसे किसी अन्य भक्त को उसके कंधे पर रखने के लिए दे सकते हैं।
लेकिन क्या आप यह जानते हैं कि सबसे पहले इस कांवड़ यात्रा को किसने शुरू किया और इसका महत्व क्या है? तो आइए आज जानते हैं कांवड़ यात्रा से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण बातें।
आपको बता दें इस बार सावन 28 जुलाई से शुरू होकर 26 अगस्त को समाप्त होगा।
भगवान परशुराम ने की मंदिर की स्थापना
कहते हैं भगवान परशुराम ने अपने आराध्य शिव जी की पूजा करने के लिए पुरा महादेव में (जो उत्तर प्रदेश प्रांत के बागपत के पास है) भोलेनाथ के मंदिर की स्थापना की थी। सबसे पहले परशुराम जी ने कांवड़ में गंगा जल भर कर शंकर जी का अभिषेक किया था। तभी से यह प्रथा शुरू हो गयी थी। आज लोग सावन के महीने में कांवड़ में जल भर कर लंबी यात्राएं करते हैं और यह जल भगवान को अर्पित कर उनकी पूजा करते हैं।
समुद्र मंथन और कांवड़ यात्रा
हालांकि कांवड़ यात्रा से कई कहानियां जुड़ी हुई हैं लेकिन सबसे प्रचलित परशुराम जी की ही कहानी है।
एक अन्य कथा के अनुसार समुद्र मंथन से जब हलाहल नामक विष निकला था तब समस्त संसार को तबाही से बचाने के लिए शिव जी ने यह विष पी लिया था। चूंकि पार्वती जी यह जानती थीं कि यह विष बहुत ही खतरनाक है इसलिए उन्होंने इसे महादेव के कंठ में ही रोक दिया था। इस विष के ताप को कम करने के लिए शिव जी को ढेर सारे जल की आवश्यकता पड़ी थी तब इसके लिए गंगा जी को बुलाया गया था इसलिए सावन के महीने में शिव जी को जल चढ़ाने की परंपरा है।
रावण ने भी की थी शिव जी के लिए कांवड़ यात्रा
असुरों का राजा रावण भी महादेव का भक्त था। कहा जाता है समुद्र मंथन के बाद शिव जी के विष के ताप को कम करने के लिए रावण ने पहली बार कांवड़ से गंगाजल भोलेनाथ को अर्पित किया था।
कांवड़ यात्रा करने से होती है पुत्र की प्राप्ति
सावन के महीने में शिव जी की उपासना करने से भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। लेकिन एक ऐसी मान्यता भी है कि इस माह में भोलेनाथ को कांवड़ से जल अर्पित करने से पुत्र की प्राप्ति होती है। हालांकि यह यात्रा लंबी और बेहद मुश्किल होती है लेकिन महादेव के भक्तों का लक्ष्य एक ही होता है और वो है प्रभु की उपासना करना।