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वाराणसी का ये मुस्लिम परिवार, 20 सालों से शिवलिंग बनाकर दे रहा है एकता की मिसाल
वाराणसी में पिछले 20 सालों से एक मुस्लिम परिवार शिवलिंग बनाकर सौहार्द की मिसाल पेश कर रहा हैं।
सावन का महीना चल रहा हैं, यह महीना पूरी तरह भगवान शिव को समर्पित होता है। लेकिन धर्म और संस्कृति की नगरी काशी में हर समय भगवान शिव के नाम की धूम मचा रहती हैं। ये जगह ही ऐसी है.. जहां गंगा जमुनी तहजीब देखने को मिलती हैं।
यहां भोर होते ही जहां एक तरफ मंदिरों की घंटी बजती है तो वहीं दूसरी तरफ मस्जिदों से अजान की आवाज सुनाई पड़ती है। इसी तहजीब की मिसाल पेश कर रहा हैं एक मुस्लिम परिवार। जिनके मुश्किल हालातों में भगवान शिव एक सहारा बनकर आएं।
दरअसल यहां पिछले 20 सालों से एक मुस्लिम परिवार शिवलिंग बनाकर बेच रहा हैं। आइए जानते है इस परिवार के बारे में आखिर कैसे वो मुस्लिम परिवार से ताल्लुक रखने के बाद भी शिवलिंग बनाया करती हैं।
एक हादसे ने बदल दी जिंदगी
दरअसल ये सच्ची कहानी वाराणसी के आदमपुर क्षेत्र में रहने वाली मुस्लिम समुदाय की एक महिला की है जिसका नाम नन्ही बेगम हैं। नन्ही बेगम के जीवन में आज से 20 साल पहले एक हादसे ने अंधेरा भर दिया था, एक दुर्घटना में नन्ही के पति मोहम्मद अतहर का इंतकाल हो गया। जिसके बाद नन्ही अपनी तीन बेटियों के साथ अकेली हो गई लेकिन नन्ही ने हालात से हार नहीं मानी और उसको सहारा मिला भगवान शिव का। जिसके बाद से नन्ही अपने बच्चों का पेट पालने के लिए पारे का शिवलिंग बनाने लगी।
कैसे शुरू किया पारे का शिवलिंग बनाना?
इस मुस्लिम महिला के पति इसी पेशे से परिवार चलाया करते थे तो जीवित रहने के लिए नन्ही ने भी इसी जीविका का सहारा लिया। आज मोहम्मद अतहर के बाद उनके इस काम को उनकी बेगम नन्ही बखूबी निभा रही हैं। अक्सर लोग गैर मजहब और गैर धर्म के काम को करने से परहेज करते हैं लेकिन इस भेदभाव से हटकर मोहम्मद अतहर ने सोचा और नन्ही ने तो इसे एक मिसाल ही बना दिया है।
शिवलिंग बनाने के लिए खुद करती है मेहनत
पारे का शिवलिंग बनाने के लिए नन्ही बाहर से पारा खरीदती हैं फिर उसे आग में पिघलाती हैं, जिसके बाद वो उसे शिवलिंग के ढांचे में रख देती हैं। करीब पांच घंटे तक ये प्रक्रिया चलती है और उसके बाद शिवलिंग तैयार हो पाता है। शिवलिंग का आकार देने के लिए सांचे का इस्तेमाल किया जाता है। शिवलिंग तैयार होने के बाद इसके रंगाई का काम शुरू होता है।
एक ही है खुदा
नन्ही ने बताया की शुरुआत में बहुत दिक्कतों का सामना करना पड़ा। कुछ लोगों ने इस काम करने से उन्हें रोका भी, धर्म की दुहाई दी लेकिन उन्हें उनका परिवार दिखाई दे रहा था, उनके ऊपर अपनी तीन बेटियों को पालने की जिम्मेदारी थी। मजहब की दुहाई देकर लोग दूसरे को तोड़ने का ही काम करते रहते हैं। मजहब के भेदभाव से हटकर ही हम जीवन में सुकून और भगवान को पा सकते हैं। आज नन्ही इसी पेशे से अपना घर चला रही हैं और अपनी बेटियों का भविष्य संवार रही हैं। तीनों लड़कियों आज ग्रेजुएशन कर चुकी हैं। नन्हीं बताती हैं कि खुदा कभी धर्म के नाम पर भेदभाव करना नहीं सीखाते हैं, इसे इंसान ही बनाता है, खुदा एक है फिर चाहे उसे अल्लाह कहिए या शिव।
पूरा परिवार मिलकर करता है ये काम
नन्ही बेगम इस पावन काम को अकेले नहीं करती बल्कि इसमें उनकी बेटियां उन्हें पूरा सहयोग देती हैं। उनकी बड़ी और छोटी बेटी निशि और फरहा कहती हैं कि पाक काम में कोई धर्म और जाति नहीं होती, जरूरत होती है केवल उस काम में इबादत की और उसी इबादत की बदौलत हम ये काम करते हैं। परिवार का प्यार और भगवान के प्रति अटूट आस्था रख कर हम अपना काम करते हैं।