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बैसाखी 2018: जानिए क्यों की थी गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना
बैसाखी सिर्फ सिखों का नहीं बल्कि हिन्दुओं का भी एक प्रमुख त्यौहार है जिसे भारत के कोने कोने में अलग अलग नाम से मनाया जाता है। जहाँ बंगाल में इस पर्व को नए वर्ष के रूप में जाना जाता है तो वहीं केरल में पुरम विशु के नाम से लोग इसे बड़े उत्साह से मनाते हैं।
बैसाखी पारंपरिक रूप से हर साल 13 या 14 अप्रैल को मनाया जाता है। इस बार यह त्यौहार आज यानी 14 अप्रैल शनिवार को है। आइए जानते है क्या है इस ख़ास दिन का इतिहास और इसका महत्व।
किसानों का पर्व है बैसाखी
यह त्यौहार हर वर्ष वैशाख महीने में आता है इसलिए इसे बैसाखी कहते हैं। सिखों के लिए यह फसल कटाई का त्यौहार है। पंजाब में बैसाखी रबी फसल के पकने का प्रतीक है। इस दिन किसान प्रचुर मात्रा में उपजी फसल के लिए ईश्वर का धन्यवाद करते हैं और उनसे अपने उज्जवल भविष्य की कामना करते हैं।
खालसा पंथ की स्थापना
बैसाखी रबी की फसल कटाई के आलावा सिखों का नव वर्ष भी रहा है। इसके अलावा इसी दिन, 13 अप्रैल 1699 को इनके दसवें गुरु गोविंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना की थी। कहते हैं जब मुग़ल शासक औरंगज़ेब के जुल्म और अत्याचगार बढ़ गए और गुरु तेग बहादुरजी को दिल्ली में चाँदनी चौक पर शहीद कर दिया गया, तब गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने अनुयायियों को संगठित कर खालसा पंथ की स्थापना की थी जिनका लक्ष्य केवल लोगों की भलाई और सेवा करना था।
गुरु गोबिंद सिंह जी ने ना केवल मुगलों के अत्याचार को समाप्त किया था बल्कि लोगों के बीच से ऊंच नीच के भेदभाव की दीवार को भी गिरा दिया था। उन्होंने सभी जातियों के लोगों को एक ही अमृत पात्र (बाटे) से अमृत छका पाँच प्यारे सजाए। कहते हैं ये पाँचों अलग-अलग जाति, कुल व स्थानों के थे, जिन्हें खंडे बाटे का अमृत छकाकर इनके नाम के साथ सिंह शब्द लगा दिया था।
वे यह बात भलीभांति जानते थे कि अहंकार किसी को भी हो सकता है चाहे वह ज्ञानी हो या अज्ञानी ख़ास तौर पर ज्ञानी, ध्यानी, गुरु, त्यागी या संन्यासी होने का अहंकार कहीं ज्यादा प्रबल हो जाता है। इसलिए उन्होंने अपने गुरुत्व का त्याग कर गुरु गद्दी गुरुग्रंथ साहिब को सौंपी दी थी और साथ ही व्यक्ति पूजा पर भी रोक लगा दी।
कुछ अन्य मान्यताएं
यह पर्व सिखों के महत्वपूर्ण पर्वों में से एक है लेकिन इस त्यौहार से अन्य कई मान्यताएं भी जुड़ी हुई हैं। माना जाता है कि इसी दिन भगवान बुद्ध को कुशीनगर में निर्वाण प्राप्त हुआ था। जिस पीपल के वृक्ष के नीचे उन्होंने कठिन तपस्या कर बौधिसत्व प्राप्त किया था, उसी वृक्ष का रोपण भी इसी दिन हुआ था। इतना ही नहीं स्वामी दयानंद जी द्वारा आर्य समाज की स्थापना भी इसी दिन की गयी थी। इसके अलावा ऐसा मानना है कि आज ही के दिन भगीरथ गंगा को धरती पर लेकर आए थे।
बैसाखी को मौसम में बदलाव का प्रतीक भी माना जाता है। यह त्यौहार अप्रैल माह में मनाया जाता है जब सर्दी पूरी तरह से खत्म हो जाती है और ग्रीष्म ऋतु की शुरुआत होती है।
हिन्दू धर्म में बैसाखी
बैसाखी का यह त्यौहार हिन्दुओं के लिए भी बहुत महत्व रखता है। इस दिन लोग पवित्र गंगा नदी में स्नान कर भगवान शिव और माँ दुर्गा की पूजा अर्चना कर उनसे सुख और समृद्धि के लिए प्रार्थना करते हैं। यह दिन व्यापारियों के लिए बहुत ख़ास माना जाता है। अपने नए काम की शुरूआत करने के लिए व्यापारी इस दिन को बहुत ही शुभ मानते हैं, साथ ही वे इस दिन अपने नए बहीखातों का आरम्भ भी करते हैं।
अलग अलग क्षेत्रों में बैसाखी
इस पर्व को भारत के विभिन्न हिस्सों में अलग अलग तरीकों से मनाया जाता है।
पंजाब में बैसाखी के दिन भांगड़ा और गिद्दा किया जाता है। गुरुद्वारों में भजन कीर्तन और लंगर का आयोजन किया जाता है, साथ ही जुलुस भी निकाले जाते हैं। केरल में यह त्योहार 'विशु' कहलाता है। यहाँ पर भी इस त्यौहार को बड़े ही हर्षोउल्लास के साथ मनाया जाता है। इस दिन लोग नए कपड़े पहनते हैं और ढ़ेर सारी आतिशबाजी करते हैं। इस दिन विशु 'कानी' फूल, फल, अनाज, वस्त्र, सोना आदि से सजाए जाते हैं और इसके दर्शन किए जाते हैं। इसके दर्शन कर लोग अपने जीवन में सुख और शान्ति की कामना करते हैं।
बंगाल में इस त्यौहार को 'पाहेला बेषाख' के रूप में मनाया जाता है वहीं तमिलनाडु में यह पर्व पुथंडु के नाम से प्रसिद्ध है।